लोगों की राय

बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्र

बीए सेमेस्टर-3 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्र

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2676
आईएसबीएन :0

Like this Hindi book 0

बीए सेमेस्टर-3 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्र

अध्याय - 1

कांस्य कालीन मूर्तिकला

(Bronze Age Sculpture)


 

प्रश्न- दक्षिण भारतीय कांस्य मूर्तिकला के विषय में आप क्या जानते हैं?

उत्तर -

भारत में धातु से बनी मूर्तिकला के विषय में यह तथ्य सर्वविदित है। यह इतिहास उतना ही प्राचीन है जितना कि मोहन जोदड़ो और हड़प्पा का इतिहास। कांस्य मूर्तिकला का सर्वाधिक प्राचीन और प्रथम उदाहरण मोहन जोदड़ो से प्राप्त नर्तकी का है। मोहन जोदड़ो की यह सभ्यता तीसरी शताब्दी ई. पू. के लगभग मानी गई है। नर्तकी की यह प्रसिद्ध कांस्य मूर्ति जो 10 सेमी. की ऊँचाई की है जो भारत की प्राचीन कला व संस्कृति की उन्नत एवं जीवन्तता का अद्भुत प्रमाण है। यह कांस्य प्रतिमा न केवल कलात्मकता और सुन्दरता की दृष्टि से अद्वितीय है बल्कि आज से हजारों वर्ष पूर्व इस कला का तकनीकी ज्ञान उस समय के कलाकारों में होने का प्रमाण प्रस्तुत करती है। एक अन्य प्राचीन धातु मूर्ति प्राप्त हुई है जो लगभग 3000 वर्ष पूर्व की मानी जाती है। कांस्य में बनी हुई मातृ-देवी की प्रतिमा है यह दक्षिण भारत के ही अदिचनालूर प्रान्त से प्राप्त हुई है। इसी समय के कांस्य से बने बर्तन भी प्राप्त हुए हैं जिन पर मेढ़ा, भैंसे, मुर्गा, चिड़िया, कुत्ते आदि की आकृतियाँ खुदी हुई हैं। तकनीकी दृष्टि से यह उच्च कोटि के बर्तन हैं। धातु मूर्तिकला की प्राचीन परम्परा को भारत ने अग्रसर रखा जिनका आगे के कालों (समय) में यह परम्परा जीवित रही है उनका आलौकिक उदाहरण हमारे समकक्ष दृष्टव्य है। इस परम्परा को प्रमाणित करती है 'बुद्ध की तांबे से निर्मित एक दीर्घकाय प्रतिमा' यह बिहार के सुल्तानपुर जिले से प्राप्त हुई है। यह मूर्ति लगभग 2025 मी. ऊँची और एक टन वजन की है। इस प्रतिमा में झीने वस्त्रों की सलवटें अत्यन्त कोमलता का आभास स्पष्ट परिलक्षित है जो इस मूर्ति की कला की उत्कृष्टता का प्रमाण है। इसे 5वीं शताब्दी में गुप्तकाल में निर्मित माना गया है। इस समय यह भव्य एवं विशाल प्रतिमा बरमिंघम संग्रहालय में सुरक्षित है। इस मूर्ति का शिल्प वैशिष्ट्य, जिसमें एक ओर झुकी हुई कमनीय मुद्रा का लालित्य, सम्पूर्ण प्रतिमा में लयात्मकता का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित है। पतली सुन्दर उँगलियाँ जो झीने वस्त्र के छोर को पकड़े हुए दृष्टव्य हैं। मुख मुद्रा भावहीन परन्तु संतुलित एवं आन्तरिक शक्ति का द्योतक है। यह प्रतिमा गुप्तकाल की कला का उत्कृष्टता का प्रतीक मानी जाती है। गुप्तकाल भारतीय मूर्तिकला का स्वर्ण युग कहलाता है। यह मूर्ति हाथ से बनी भारतीय धातु मूर्तिकला की तकनीकी उत्कृष्टता का परिचय भी देती है।

इस काल में मूर्ति निर्माण के कुछ सिद्धान्त प्रचलित थे। शारीरिक मुद्राओं, हाथों की मुद्राओं, धार्मिक प्रतिमाओं, देवी व देवताओं की प्रतिमाओं और अन्य देवगण आदि की प्रतिमाओं में शास्त्रीय विधियों और नियमों का पालन किया जाना मूर्तिकारों, शिल्पकारों के लिए आवश्यक माना जाता था। वेदों के अनुसार हमें विभिन्न धातुओं का उल्लेख मिलता है। जिसमें स्वर्ण, चाँदी, सीसा, लोहा धातुओं का उल्लेख यजुर्वेद में मिलता है जबकि ऋग्वेद सर्वाधिक प्राचीन वेद है। इसमें सोना, ताँबा और कांस्य का ही उल्लेख मिलता है। रामायण काल में राम द्वारा अश्वमेघ यज्ञ के समय सीता की स्वर्ण प्रतिमा बनवाकर यज्ञ सम्पन्न करने का प्रमाण है। नागार्जुन कोंडा में खुदाई से कुछ धातु मूर्ति शिल्प प्राप्त हुए हैं। ये इक्ष्वाकु वंश के और दूसरी शताब्दी ई. के लगभग माने जाते हैं। चालुक्य और कांकतीय कांस्य मूर्ति शिल्पों के उदाहरण भी दृष्टव्य हैं। इससे यह स्पष्ट है कि धातु से निर्मित मूर्ति शिल्प प्रायः आर्थिक वर्णनात्मक शैली से प्रभावित और अधिक प्राचीन थे।

कोल्हापुर में कुछ ही धातु मूर्ति शिल्प प्राप्त हुए हैं, ये सातवाहन काल के एवं दूसरी शताब्दी ई. के माने जाते हैं। कांस्य मूर्ति शिल्पों के उदाहरण अकोता प्रान्त से प्राप्त हुए हैं जो सम्भवतः दूसरी और तीसरी शताब्दी के हैं। परन्तु अधिकतर उदाहरण गुप्तकालीन मूर्ति शिल्पों के हैं। ये अत्यधिक उत्कृष्ट हैं। ये सभी चौथी शताब्दी से छठी शताब्दी के अन्तिम प्रहर तक के माने जा सकते हैं। गुप्तकाल की समाप्ति के अन्तिम वर्षों में कन्नौज में राजा हर्षवर्धन का उद्भव हुआ। सातवीं शताब्दी में हर्षवर्धन के समय कला का चतुर्मुखी विकास हुआ। उनके समय में बुद्ध की अनेक मूर्तियाँ सोने, चाँदी और चन्दन की बनाई हैं। चीनी यात्री हुएत्सांग ने स्वर्ण धातु से निर्मित एक मानवाकार प्रतिमा का उल्लेख अपने भारत यात्रा के वर्णनों में भी किया है। इन उदाहरणों से प्राचीन भारत के मूर्तिकारों की कला में निपुणता का ज्ञान सहज ही अनुभव किया जा सकता है।

10वीं शताब्दी के अंत होने तक उत्तर भारत में मुस्लिम शासकों का आधिपत्य होने लगा था एवं अधिकांश हिन्दू वंशों का पतन होने लगा था। उस समय भी नेपाल और तिब्बत में धातु मूर्तिकला की प्राचीन परम्परा जीवित रही। पाल और सेन राजाओं के संरक्षण में बिहार और बंगाल में 8वीं शताब्दी से 12वीं शताब्दी तक कलाकार काम करते रहे।

धातु मूर्ति शिल्पकला दक्षिण भारत में अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँची। विशेषतः चोल राजाओं के समय पहुँची। कार्ल खण्डेलवाल का कथन है कि, "कलात्मक उपलब्धियों की दृष्टि से संसार में सबसे उत्कृष्ट दक्षिण भारतीय कांस्य मूर्ति शिल्प हैं।' शुद्ध कला की दृष्टि से देखा जाये तो 10वीं (दसवीं) शताब्दी में चोलवंशीय मूर्तिकला में उत्कृष्टता के स्पष्ट चिह्न (लक्षण) दिखाई देते हैं। यही वह समय (काल) है जब शिल्पकला में कारीगरी की उच्चता, सृजनात्मकता और प्रवीणता दृष्टव्य होने के साथ ही साथ इस समय के मूर्ति शिल्पों की अधिक संख्या में विश्व स्तर पर प्रमुख संग्रहालयों व निजी संग्रहों के लिए खरीदी गई। इस काल में शिव को विशेष रूप से व अनेक रूपों में शिल्पांकित किया गया। विशेषतः 'नटराज की प्रतिमा को जो साकार रूप मिला वह इसी काल की महत्वपूर्ण देन है। पार्वती की प्रतिमा को भी शिव के साथ ही में अंकित किया जाने लगा। दक्षिण भारत की प्रारम्भिक कला अपने समय की प्रस्तर मूर्तिकला से अधिक साम्यता रखती है। धातु मूर्तिकार अपनी मूर्ति की कल्पना प्रथम मोम की मूर्ति बनाने में करता है। जहाँ कला की उत्कृष्टता की अधिक सम्भावनाएँ होती हैं। परन्तु दक्षिण भारतीय प्रारम्भिक कांस्य मूर्तियाँ प्रस्तर की खुदाई के ही समान थीं जिनमें कला की स्वतन्त्र भावनाओं का अभाव तो था ही साथ ही पत्थर पर काम में ली जाने वाली छैनी और हथौड़े की गढ़ाई के समान ही काम दृष्टव्य है। इसी के साथ आगे के कालों में दृष्टव्य मूर्ति की गोलाई और उभार का भी इस काल में अभावदृष्टव्य है। आगे के कालो में ये मूर्ति शिल्प अनुभव व अधिक उन्नत तकनीक के साथ दिखाई देती हैं। इस समय के दक्षिण भारतीय मूर्ति शिल्पकार उन्हीं सिद्धान्तों पर मूर्ति शिल्प निर्मित कर रहे थे जिन पर पहले के समय (पूर्वार्द्ध काल में) प्रस्तर मूर्तिकार करते थे परन्तु उन्होंने मूर्तियों में हाथों एवं उँगलियों की सुन्दर मुद्राओं में गति एवं कमनीयता को स्पष्ट परिलक्षित किया है। इसमें मथुरा, उड़ीसा और खजुराहो की मूर्तियों में स्पष्ट परिलक्षित है।

दक्षिण भारतीय कांस्य मूर्तिकला अधिकांशतः 'शैव धर्म से सम्बन्धित रही है, जिसका कारण मुख्यतः यही रहा कि छठी व सातवीं शताब्दी में कुछ ऐसे 'कवि' एवं विचारक हुए जिनमें -भनिका वसागर, अप्पास्वामी, सुन्दरेश्वर मूर्ति स्वामी इत्यादि जिन्होंने यहाँ धार्मिक विचारधाराओं के माध्यम से शिवभक्ति का प्रचार किया और बौद्ध व जैन धर्म को फैलने से रोका। इसके फलस्वरूप चोल साम्राज्य के समय यहाँ शैव मूर्तिया अधिकतर बनाई गई। यद्यपि दक्षिण भारत में वैष्णव धर्म से सम्बन्धित मूर्तियाँ भी बहुतायत से प्राप्त हुई हैं। जैसे - कृष्ण, राम, विष्णु इत्यादि। सीता की मूर्तियाँ भी प्राप्त हुई हैं। सीता और पार्वती की मूर्तियों को दक्षिण भारत में विशेष रूप से नारी की सम्पूर्ण सुन्दरता के प्रतीक बनाया गया है।

नटराज की प्रतिमा - दक्षिण भारतीय कांस्य मूर्तिकला में सर्वाधिक नाटकीय व स्फूर्तिकारक तत्व नटराज की प्रतिमा में ही दृष्टव्य है और इस तथ्य को स्वीकार किया गया है। नटराज की प्रतिमा दक्षिण भारतीय कला में सर्वप्रथम अस्तित्व में आयी। शिव को नृत्य के स्वामी के प्रतीक स्वरूप प्रस्तुत किया गया है। शैविक धारंणानुसार संसार की गति में लय और ताल के तत्व विद्यमान रहते हैं और थोड़ा भी अन्तर पड़ने पर संसार में प्रलय की सम्भावना आ जाती है। इस प्रतिमा को दर्शाने का मूल तथ्य मूर्तिकार का यह है कि शिवजी युगान्तर के समय में इस ताण्डव नृत्य को करते हैं। नटराज की मूर्ति की यह नृत्यमय कल्पना और नटराज का विराट व भव्य स्वरूप भारतीय नृत्यकला की ताल व लय की विशेषताओं को प्रकट करती है। अतएव नटराज की मूर्ति की तात्विक व्याख्या के अन्तर्गत दोनों ही प्रकार के नृत्यों विध्वंसक व सृजनात्मक को समाहित किया गया है। श्री रायकृष्ण दास जी के अनुसार "भारतीय मूर्तिकला केवल दो कृतियाँ निर्माण करने में समर्थ हुई है। एक तो शान्ति और स्थिरता की अभिव्यक्ति 'बुद्धि मूर्ति दूसरे गति और संसृति का निदर्शन 'नटराज मूर्ति'।

नटराज की प्रतिमा भारतीय नृत्य की सुन्दरता और गति का ही प्रतिरूप है जिसमें शिव की पाँच क्रियायें निम्नलिखित हैं -

1. सृजन,
2. संवर्धन,
3. विध्वंस,
4. मूर्तिरूप,
5. सर्वहारा स्वरूप।

नृत्य मुद्रा में शिव - शिव की मुद्रा नृत्य के रूप में दर्शायी गई है। इसके अन्तर्गत शिव को नृत्य के स्वामी के रूप में दर्शाया गया है। प्रफुल्लित एवं कल्याणकारी मुद्रा अथवा विध्वंसकारी स्वरूप में दृष्टव्य हैं। जहाँ वे सृष्टि के सृजन और विध्वंस दोनों ही कारक के रूप में माने जाते हैं। शिव यहाँ पर एक दिव्य नर्तक की भाँति है, जिनके माध्यम से गति और कम्पन का मानवीकरण किया गया है और जो नृत्य के 108 गति प्रकारों के माध्यम से इस सृष्टि के गणितीय नियमों को समझाते हैं। द्राविड़ संस्कृति के अनुसार शिव का नृत्य प्रकृति की शक्तियों का मानवीकरण है। ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत फैली हुई शक्तियों का स्फुरण करना ही है। अतः यह उन 'गत्यात्मक और अगत्यात्मक तत्वों का अनन्त नृत्य है, जिन्हें लगातार स्फुरण के लिए प्रेरित करना ही एकमात्र ध्येय है और शिव इसी अनन्त नृत्य के माध्यम से अपने शक्तिदायक स्वरूप का मानवीकरण करते हैं। जिस तात्विक शक्ति के द्वारा इस ब्रह्माण्ड का सृजन होता है उसका अस्तित्व बना रहता है और अन्त में नष्ट भी हो जाता है और कुछ समय पश्चात् पुनः अस्तित्व में आ जाता है जिसमें ब्रह्मा जी द्वारा रचित रात्रि व दिन की ही तरह है।

डॉ. आनन्द कुमार स्वामी का मानना है कि "भगवान शिव का यह 'तात्विक नृत्य' अपना दोहरा महत्व रखता है जहाँ एक ओर तो यह इस भौतिक जगत् के निर्माण का द्योतक है वहीं दूसरी ओर आध्यात्मिकता की पराकाष्ठा है। जहाँ बुरी भावनाओं एवं बुरी आत्माओं का नाश और उनसे मुक्ति अथवा उनका रूपान्तरण होना दर्शाता है।'

नटराज की प्रतिमा का मूल स्वरूप - त्रिनेत्रधारी, शान्त व प्रसन्न मुखमुद्रा, जटा मुकुट, गंगा की धार, एक पैर पर खड़ी मुद्रा एवं चार हस्त, नटराज की प्रतिमा का मूल स्वरूप स्पष्ट परिलक्षित है। इस मूर्ति में उनके जटाजूट ही मुकुट का कार्य करते हैं। उनके शरीर का निचला भाग नृत्य मुद्रा में और गतिमान है जो कि ताण्डव नृत्य की मुद्रा है। उनके दाहिनी ओर गंगा को दिखाया गया है। हाथ जोड़े नतमस्तक मुद्रा में दृष्टव्य हैं। बायीं ओर चन्द्रमा और सर्प रहते हैं। सर्प उनकी शक्ति का द्योतक है। इस सृष्टिकारी नर्तक के मुखमण्डल पर प्रसन्नता का भाव प्रदर्शित है। साथ ही अंग-प्रत्यंगों से भी गति और स्फूर्ति दर्शनीय है। उनका दाहिना हाथ अभय मुद्रा में उठा हुआ है। मानो वे इस सम्पूर्ण जगत् को भय से मुक्त करते दृष्टव्य हैं। वे त्रिनेत्रधारी - सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि इनके द्योतक हैं। उनके एक बायें हाथ में अग्नि की ज्वाला है जो एक ओर विनाशक है और दूसरी ओर पवित्रता की द्योतक है। नटराज के अन्य दाहिने हाथ में डमरू दिखाया गया है। यह सृष्टि के सृजन का सूचक है। इसी प्रकार बायां पैर नृत्य की मुद्रा में ऊपर उठा हुआ है जो तालव लय का द्योतक है, जबकि उनका दायाँ पैर शक्ति सूचक दिखाया गया है जो अन्धकार का नाश करता है। नटराज की इस नृत्य मुद्रा में गति और ओज का समन्वय उन्हें उदात्त, सृजनकर्ता, प्रलयकर्ता एवं सृष्ट के रूप में प्रतिष्ठित है। नटराज की प्रतिमा के सम्बन्ध में आनन्द कुमार स्वामी ने कहा है कि "सृजन डमरू से उत्पन्न होता है, अभय मुद्रा में उठे हुए हस्त से सुरक्षा की भावना प्रसारित होती है। अग्नि के माध्यम से विध्वंस का मार्गदर्शन होता है, पैर तो तमस को दूर भगाता है और एक अन्य चौथा हाथ-पैर को ही आत्मा की मुक्ति का द्योतक है।"

नटराज की यह प्रतिमा चोलवंश के शासनकाल की है। यह राजकीय संग्रहालय मद्रास में सुरक्षित है। नटराज की प्रतिमा की प्रमुख विशेषतायें हैं यह विशेषतायें अन्य नटराज प्रतिमाओं में देखने को नहीं मिलती हैं। संस्कृत साहित्य में उपलब्ध धार्मिक विधि-विधानों से नटराज की प्रतिमा की प्रतीकात्मकता का ज्ञान होता है। उसके अनुसार ऊपरी दायें हाथ में डमरू समस्त सृष्टि का द्योतक है और रुक-रुक कर उसकी आवाज होना समय की सूचक है। एक बायें हाथ में पवित्र अग्नि है, जो ब्रह्माण्ड के विध्वंस की सूचक है। दूसरा बायाँ हाथ शरीर के सम्मुख से आते हुए पैर को ही इंगित कर रहा है, यह आत्मा की मुक्ति का द्योतक है। नीचे का दाहिना हाथ अभय मुद्रा को दर्शाता है। यह समस्त संसार का भय मुक्ति का रास्ता दिखाता है जिस पर कोबरा सर्प लिपटा है यह उसकी शक्ति का सूचक है। समस्त प्रतिमा को चारों ओर से अग्नि ज्वालाओं के घेरे के माध्यम से दर्शाया गया है। नटराज के उदात्त नृत्य व सृष्टि की पवित्रता का सूचक है। इस प्रकार इस नृत्य मुद्रा में शिव अपनी सृजनकारी शक्ति और स्फूर्ति का मानवीकरण करते हैं। आनन्द कुमार स्वामी के अनुसार शिव की पाँच क्रियाएँ (पंचकृत्य) प्रतीकात्मक रूप से प्रवर्तित होती हैं -

(1) सृष्टि - ल उदभव और सृजन
(2) स्थिति - संवर्धन
(3) संहार - विध्वंस और उद्भव
(4) तिरोभव - मोहभंग, अन्तर्ध्यान होना, मूर्त स्वरूप
(5) अनुगृह - सुन्दरता, मुक्ति तथा सुन्दरता व मुक्ति के लिए उपाय करना।

नटराज द्वारा किया जाने वाला यह उदात्त नृत्य विध्वंसकारी हो यह आवश्यक नहीं है। उदाहरण हेतु - कोलम्बो म्यूजियम में संग्रहीत एक नटराज की प्रतिमा में, यह पोलोनरूवा के मन्दिर से प्राप्त हुई है और 11वीं शताब्दी की दक्षिण भारतीय कारीगरी की उद्भुत मिसाल है इसमें गति को बहुत ही सन्तुलित रूप में दिखाया गया है। इसमें शारीरिक सन्तुलन, मुख मण्डल पर शान्त भाव व चित्त की स्थिरता का अद्भुत समायोजन दृष्टव्य है। फिर भी सम्पूर्ण प्रतिमा में गति के साथ शक्ति का दिग्दर्शन कराया गया है इसमें विभिन्न भुजाओं के माध्यम से शक्ति के ' दिग्दर्शन पर बल दिया गया है।

ताण्डव नृत्य - शिव के अनेक रूपों में ताण्डव नृत्य भी एक रूप है, जो भैरव के तामसिक रूप को दर्शाता है। अनेक भुजाओं से युक्त शिव द्वारा किये जाने वाले इस नृत्य में भी ब्रह्माण्ड के सृजन और विध्वंसक को ही प्रतीकात्मक ढंग से प्रदर्शित किया गया है जिसमें सृष्टि के प्रारम्भ और अन्त को शिव के इस भैरव रूपी तामसिक रूप द्वारा प्रतिपादित किया गया है अर्थात् "ब्रह्माण्ड में ही पूर्ण क्षय और पूर्ण विलय"। सृष्टि का संहार एवं पुनः नवीन रचना। शिव की आध्यात्मिक शक्तियों का बहुआयामी स्वरूप प्रकट करती है। ताण्डव नृत्य के इस शिव रूप को धातु मूर्तियों में अधिक प्रयुक्त नहीं किया गया है परन्तु प्रस्तर प्रतिमाओं में एलोरा, एलीफेन्टा तथा अन्य स्थानों से प्राप्त होती है। शिव के ताण्डव नृत्य का दिग्दर्शन होता है। शिव को ताण्डव नृत्य के समय दस हाथों वाला बनाया गया है। इसमें उनके प्रत्येक हाथ में चमत्कारिक वस्तु अथवा हथियार बनाया गया है। इससे विभिन्न गुणों एवं शक्तियों का भाव प्रदर्शित होता है।

नटराज की ये मूर्तियाँ ताँबे एवं पीतल की भी बनाई गई हैं इनको ढालकर तैयार किया गया है। 15वीं व 16वीं शताब्दी से लेकर वर्तमान काल तक वैशिष्ट्य गुणों से युक्त उदाहरण दृष्टव्य हैं। राजकीय संग्रहालय मद्रा, कोलम्बो संग्रहालय एवं बोस्टन संग्रहालय में इनके अति उत्तम संग्रह दृष्टव्य है। नटराज की मूर्ति का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हमें तंजौर के वृहदीश्वर मन्दिर से उपलब्ध होता है।

नटराज की मूर्तियाँ - ये मूर्तियाँ विभिन्न संग्रहालयों में सुरक्षित हैं उनमें से कुछ प्रमुख मूर्तियों का उल्लेख निम्नलिखित है -

(1) दक्षिण भारत से प्राप्त 12वीं शताब्दी की चोलवंशीय नटराज की कांस्य प्रतिमा। इस समय राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में सुरक्षित है। चित्र संख्या (335 a)। दक्षिण भारत से ही प्राप्त इसी काल की नटराज की एक अन्य प्रतिमा भी इसी संग्रहालय में सुरक्षित है।

2676_01_5A

चित्र- 335 (a):नटराज, दक्षिण भारतीय कांस्य प्रतिमा, नेशनल म्यूजियम, नई दिल्ली।

2676_02_5B

चित्र - 335 (b) : नृत्य मुद्रा में शिव

2676_03_5C

चित्र- 335 (c) :नटराज की प्रतिमा

(2)तिरुवरंगलम् (जिला तिरुचिरापल्ली) से प्रातः 10वीं शताब्दी के अन्तिम समय व चाल वंश के आरम्भिक काल का कांस्य प्रतिमा। यह कांस्य प्रतिमा 72 से.मी. ऊँचाई की है और वर्तमान में राष्ट्रीय संग्रहालय नई दिल्ली में सुरक्षित है।

(3) तिरुवेलंगडु (जिला चित्तूर) से प्राप्त चोलवंशीय नटराज शिव की कांस्य प्रतिमा जो 11वीं शताब्दी की मानी जाती है। नटराज की सुन्दर प्रतिमाओं में से एक है। इस प्रतिमा की ऊँचाई 114.5 से.मी. की है। इस समय यह राजकीय संग्रहालय, मद्रास (चेन्नई) में सुरक्षित है। 

2676_04_6A

चित्र 336 :

 

(4) नटराज शिव की एक अन्य सुन्दर प्रतिमा कुरम् से प्राप्त हुई यह चिंगलेंपुर जिले के अन्तर्गत आता है। यह प्रतिमा पल्लव एवं चोल वंश के आरम्भिक समय की है और 9वींशताब्दी के अन्तिम प्रहर की है जिसकी ऊँचाई53 से.मी. की है और मद्रास के राजकीय संग्रहालय में सुरक्षित है।

(5) दक्षिण भारत से प्राप्त नटराज की एक अन्य कांस्य प्रतिमा को लगभग 13वीं शताब्दी की मानी जा सकती है, तंजौर की आर्ट गैलरी में सुरक्षित है।

(6) नटराज शिव की एक कांस्य प्रतिमा बेलकन्नी, जिला तंजौर से प्राप्त हुई है। चोल वंश के आरम्भिक काल व दसवीं शताब्दी के अन्तिम समय की मानी जाती है। इस प्रतिमा की ऊँचाई 84 से. मी. की है। वर्तमान में यह प्रतिमा मद्रास संग्रहालय में सुरक्षित है।

(7) नटराज शिव की दक्षिण भारत से प्राप्त 16वीं - 17वीं शताब्दी की ताँबे धातु से निर्मित सुन्दरतम् प्रतिमा जिसकी ऊँचाई 91.5 से.मी. की है। इस समय यह प्रतिमा बोस्टन केफाइन आर्ट संग्रहालय में सुरक्षित है।

2676_05_6B

चित्र 337 : नटराज, पल्लवकालीन, 8वीं-9वीं शताब्दी, 53 से.मी. कुरम (जिला चिंगलेपुट) राजकीय संग्रहालय, मद्रास।

2676_06_7

चित्र - 338 शिव नटराज के रूप में, 16वीं - 17वीं शताब्दी, के मध्य, ताँबे की प्रतिमा 91.5 से.मी. की ऊँचाई

(8) नटराज शिव की ताँबे से निर्मित 18वीं शताब्दी की एक प्रतिमा उत्तर विजयनगर काल की मानी जा सकती है तथा इस समय यह सुन्दर प्रतिमा बोस्टन के फाइन आर्ट म्यूजियम में सुरक्षित है।

दक्षिण भारतीय अन्य धातु मूर्तियाँ - दक्षिण भारतीय अन्य धातु व कांस्य मूर्तियों में शिव के अनेक स्वरूपों के साथ एक अन्य देवी-देवताओं में पार्वती, काली, लक्ष्मी, दुर्गा इत्यादि की मूर्तियाँ अधिक संख्या में बनायी गईं। इसके साथ ही चोल वंश के समय कुछ ऐसी मूर्तियाँ भी पोट्रेट (व्यक्तिगत चित्रण) के रूप में बनाई जाने लगी थीं जिनमें चोलवंशीय राजाओं, उनकी रानियों, शैव व वैष्णव सन्तों और उनके भक्तों, संभ्रान्त परिवार के लोगों अथवा मन्दिर निर्माण कराने वाले सेठों के व्यक्तिगत चित्र मिलते हैं। इस प्रकार की मूर्तियों में सादृश्यता का अभाव दृष्टिगोचर होता है। गणेश की मूर्तियाँ भी प्राप्त हुई हैं। जिनमें नाचते हुए गणपति की प्रतिमाएँ अधिक दृष्टव्य हैं।

दक्षिण भारतीय कांस्य मूर्तिकला में पार्वती को शिव की शक्ति के रूप में दर्शाया गया है। यहाँ उनको अनेक रूपों में प्रदर्शित किया गया है। जैसे- दुर्गा, काली, उमा और गौरी इत्यादि। इस प्रकार की मूर्तियों में उनके उभरे हुए वक्ष स्थल, पतली कमर और लावण्यमयी मुद्रा के साथ बनाया गया है। चोलवंशीय पार्वती को अत्यधिक कमनीय, लावण्यमयी और त्रिभंगी मुद्रा में बनाया गया है। पार्वती की सर्वाधिक सुन्दर प्रतिमा फियर आर्ट गैलरी वाशिंगटन में सुरक्षित है। यह ग्यारहवीं एवं बारहवीं शताब्दी की मानी जाती है। प्रतिमा अत्यन्त लावण्यमयी व सौन्दर्ययुक्त है। अधिकांशतः हमें शिव-पार्वती विवाह के दृश्य की प्रतिमाएँ दृष्टव्य है। पार्वती को अधिकतर शिव की संगिनी के रूप में दर्शाया गया है।

चोल वंश में पार्वती को ही अनेक रूपों में प्रस्तुत किया गया है। उन्हीं में सें उनका एक रूप काली का भी है जिसमें शिव की शक्ति को विध्वंसकारी, रोग व पीड़ा एवं मृत्यु के प्रतीक स्वरूप काली के रूप में प्रस्तुत किया गया है। जब उन्हें शिव के नृत्य रूप में दिखाया गया है तब भी उन्हें मृत्यु के नृत्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है। काली की पूजा अधिकतर शक्ति की पूजा करने वाले समाजों में की जाती है जो उन्हें मातृ-शक्ति के रूप में पूजते हैं और बहुत अधिक कर्म-काण्डीय समाजों में भी काली की पूजा की जाती है। समाज में महाकाली व रुद्रकाली के रूपों की पूजा करते हैं। महाकाली को चार हाथों वाली दिखाया जाता है। रुद्रकाली व भ्रदकाली को बारह अथवा अधिक हाथों वाला दर्शाया गया है। उनके इन हाथों में से किसी में मुण्ड - मस्तक, किसी हाथ में सर्प लिपटे हुए, दो हाथ पूजा करने वालों के लिए आशीर्वाद स्वरूप उठे हुए दर्शाये गये हैं। उनको भी त्रिनेत्रधारी दर्शाया गया है। काली की धातु मूर्तियाँ भी अधिक संख्या में बनी।

दुर्गा और महिषमदिनी की मूर्तियों में भी पार्वती को ही दुर्गा के रूप में दर्शाया गया है। कोई भी देवी जो सिंह की मूर्ति के साथ दिखाई जाती है वह दुर्गा की होती है। परन्तु धातु मूर्तियों में दुर्गा की प्रतिमा के साथ सिंह को नहीं दर्शाया गया है। उन्हें त्रिनेत्रधारी और वीरता से ओत- प्रोत क्रोधित मुद्रा में शिव के हथियार को धारण किये हुए दर्शाया गया है।

उमा की मूर्तियों में कभी-कभी उन्हें चार हस्तधारी जिनमें से दो अभय और परद मुद्रा एवं अन्य गुणों से युक्त दर्शाये गये हैं। अधिकतर त्रिभंगी मुद्रा में दर्शाया गया है। ये मूर्तियाँ अधिकांशतः पार्वती की प्रतिमाओं से मिलती-जुलती सी हैं।

लक्ष्मी को धन सम्पत्ति और सौभाग्य की देवी के रूप में माना जाता है। उन्हें श्री भी कहा जाता है जो कि समुद्र मंथन के समय पानी से प्रकट हुई तथा विष्णु की संगिनी मानी जाती है। विष्णु के प्रत्येक अवतारों के साथ लक्ष्मी को भी संयुक्त देखा गया है। जैसे सीता, राधा, रुक्मिणी इत्यादि। लक्ष्मी सौभाग्य की देवी हैं सदैव सुन्दर, रूपवती व लावण्यमयी दृष्टव्य है। उन्हें विष्णु जी के चरणों के पास अथवा विष्णु जी के पार्श्व में खड़े हुए दर्शाया गया है। वे अपने हाथ में फूल पकड़े हैं। स्वतन्त्र प्रतिमाओं में चार हस्तधारी भी दिखाया जाता है। उनके गले में सदैव वैजयन्ती माला रहती हैं परन्तु लक्ष्मी को अधिकतर स्त्री की लावण्यमयी छवि दर्शाने के लिए द्विहस्तधारी ही दिखाया गया है।

विष्णु को हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के आधार पर पालनहार के रूप में जाना जाता है। उनकी प्रतिमाएँ अधिकतर खड़ी-बैठी या अधलेटी मुद्रा में बनायी जाती है। उन्हें शेषनाग के ऊपर लेटे हुए दर्शाया गया है। शेषनाग का फन उनके ऊपर छत्र के रूप में बनाया गया है। विष्णु योग, भोग, वीर और अभिचादिक इत्यादि भावों के प्रवर्तक माने गये हैं। वे मनुष्य जगत् का कल्याण करने वाले हैं। विष्णु को चार हस्तधारी दिखाया गया है तथा उनके दो हाथों में शंख व चक्र दिखाये जाते हैं। विष्णु का वाहन गरुड़ होता है। प्रस्तर मूर्तियों में विष्णु को अधिकतर अधलेटी मुद्रा में दिखाया गया है। धातु मूर्तियों में उनके अन्य रूप भी देखे जाते हैं। विष्णु जी के ही दो अवतार राम व कृष्ण को दक्षिण भारतीय मूर्तिकला में विशेष स्थान प्राप्त हुआ है। कृष्ण की अनेक लीलाओं में से उनकी बाल लीला बहुत लोकप्रिय है। सर्वाधिक लोकप्रिय व सुन्दर प्रतिमाएँ उनका वेणु गोपाल रूप दृष्टव्य है।

ब्रह्मा की चार मस्तकधारी प्रतिमा धातु प्रतिमाओं में अधिक नहीं बनाई गई। ब्रह्मा को इस संसार का सृष्टा कहा जाता है। मन्दिरों की संख्या बहुत कम है। मन्दिरों में अन्य मूर्तियों के साथ ब्रह्मा की भी मूर्ति प्राप्त हो जाती है। हालांकि मद्रास म्यूजियम में ब्रह्मा की कुछ सुन्दर धातु मूर्तियाँ दृष्टव्य हैं। ब्रह्मा जी की अधिकांश मूर्तियों में उनको खड़े या बैठे चार मस्तकधारी तथा उनके चार हस्त में से एक में पानी से भरी झारी, कमल-पुष्प, एक में पुस्तक अथवा कोई स्क्रोल दृष्टव्य है। केवल मात्र ब्रह्मा के ही मुख पर दाढ़ी व मूँछें दिखाई जाती हैं। सरस्वती जी कहीं-कहीं ब्रह्मा जी के साथ दिखाई गई हैं।

शिव प्रतिमायें - हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार तृतीय व सर्वाधिक महत्वपूर्ण देवता शिव या महेश हैं। इस प्रकार इन तीन देवों को हिन्दू मान्यता के अनुसार "ब्रह्मा-विष्णु-महेश" के त्रिरूप के रूप में ही माना जाता है। शिव को संहारक की संज्ञा भी दी जाती है और उन्हें प्रार्थना मनौतियों व प्रशंसा के द्वारा मनाया जाता है। शिव की मूर्तियाँ हमें बैठी खड़ी नृत्य करते हुए इत्यादि अनेक रूपों में प्राप्त होती हैं। शिव की अनेक प्रतिमायें पार्वती जी के साथ युगल रूप में भी प्राप्त होती हैं। यद्यपि शिव की सर्वाधिक सुन्दर व लोकप्रिय धातु मूर्तियाँ नटराज के रूप में दृष्टव्य हैं। इनमें उनका संहारक रूप उभरकर सम्मुख आया है। शिवं का वाहन नंदी (बैल) है। प्रस्तर मूर्तियों में नंदी को शिव के साथ ही अधिकांश रूप में दर्शाया गया है। नंदी की प्रतिमाओं को हम सदैव शिव मन्दिरों में देखते आये हैं।

गणेश - शिव और पार्वती पुत्र गणेश अन्य सभी देवताओं में सर्वाधिक लोकप्रिय देवता हैं। हाथी के मस्तक वाले गणेश की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विभिन्न (दन्त कथायें) हैं। गणेश जी को बुद्धि का देवता (स्वामी) माना गया है। इनके विघ्नविनाशक रूप के कारण सभी हिन्दू परिवारों में इनकी आराधना की जाती है। धार्मिक मान्यताओं के आधार पर घर के बाहरी द्वार के ऊपर गणेश जी की प्रतिमा स्थापित करना अत्यन्त शुभ माना गया है। अतः हिन्दुओं में गणेश को प्रथम पूज्यते का स्थान प्राप्त है। तात्पर्य है, कि सब देवताओं की पूजा से पहले तथा किसी भी शुभ कार्य का आरम्भ करने से पहले गणेश जी को प्रथम पूजने का विधान है। गणेश जी की मूर्तियाँ आसानी से पहचान में भी आती हैं। इनकी विभिन्न मुद्राओं में मूर्तियाँ हैं जैसे- नाचते हुए गणपति के रूप में, खड़ी व बैठी मुद्रायें इत्यादि में। इनका वाहन चूहा है। गणेश की मूर्तियों के साथ इन्हें भी बनाया गया है। गणेश जी की कांस्य प्रतिमा थिरुकरुगवर मन्दिर तंजावुर से प्राप्त हुई हैं।

कार्तिकेय (सुब्रह्मण्यम्) को शिव के दूसरे पुत्र के रूप में मान्यता प्राप्त है। दक्षिण भारत में कार्तिकेय को सुब्रह्मण्यम् रूप में प्रत्येक घर में पूजा जाता है। उत्तर भारत में कार्तिकेय जी की स्कंद के रूप में पूजा होती है। वे युद्ध के देवता अथवा सेनानायक के रूप में जाने जाते हैं। वहाँ उन्हें दो से बारह हस्तधारी एवं छः मस्तकों वाला भी दिखाया गया है। सुब्रह्मण्यम रूप में उन्हें एक सिर और चार भुजाधारी का रूप दक्षिण भारत में दिखाया गया है। वे अधिकांश अपने वाहन मोर के साथ बनाये गये हैं। दक्षिण भारत में सुब्रह्मण्यम् की कुछ कलात्मक कांस्य प्रतिमायंे बनाई गई हैं।

सरस्वती को कला, संस्कृति, संगीत, विद्या व ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी माना जाता है। हंस व कमल के चिह्न अधिकांशतः सरस्वती की प्रतिमा के साथ बने हुए हैं। कभी-कभी खिले हुए कमल के पुष्प पर भी आसीन (बैठा हुआ) दर्शाया गया है। उनके चारों हाथ में से सामने के दो हाथ में वीणा को धारण किये हुए हैं जो उनकी पहचान है। पीछे के दोनों हाथ में से कोई पुस्तक या स्क्रोल और दूसरे में कमल पुष्प बनाया गया है। उनके अति प्रचलित रूप में वे समभंग मुद्रा में खिले हुए कमल पर खड़ी बनाई गई हैं और चारों हाथों में प्रचलित चिह्न हैं। धातु मूर्तियों में उनकी मूर्तियाँ कम बनाई गई। प्रस्तर में उन्हें अधिक संख्या में निर्मित किया गया है।

चोल वंशीय धातु मूर्तिकला में देवी-देवताओं के आदर्श रूपों एवं गुणों को दर्शाया गया। इसके अतिरिक्त चोल वंश में प्रमुख स्त्री-पुरुषों की धातु मूर्तियाँ बनाई गई। जिनमें मन्दिरों का निर्माण करवाने वाले और मन्दिरों में बड़ी-बड़ी भेंट चढ़ाने वाले सेठ या राजा महाराओं की मूर्तियाँ प्राप्त होती हैं। कोनेरिरजपुरम् के 10वीं शताब्दी के शिव मन्दिर में रानी सखियान माँ देवी की मूर्ति स्थापित है। तंजौर के वृहदीश्वर मन्दिर में चोल वंशीय राजा राजराजा प्रथम की एक खड़ी प्रतिमा है। यह राजा के महत्व एवं उसकी लोकप्रियता को बताती है। इसी समय ही राजा विष्णुवर्धन की प्रतिमा बेलूर के केशव मन्दिर में स्थापित है। राजा ने रामानुजाचार्य जी के कहने पर अपना धर्म बदलकर वैष्णव धर्म को अपनाया एवं आगे चलकर उसने बहुत सुन्दर मन्दिरों के निर्माता के रूप में ख्याति अर्जित की। 15वीं शताब्दी के पश्चात् धातु मूर्तियों की तकनीक में सुधार दृष्टव्य है। इस काल का सर्वाधिक सुन्दर उदाहरण विजय नगर के प्रसिद्ध राजा कृष्णदेव राय (1509-1929 ई.) एवं उनकी दोनों रानियाँ चिन्ना देवी और तिरुमाला देवी की मूर्ति बनाई गई है। यह श्री निवास पेरूमल मन्दिर के अन्तर्गत तिरुपति के निकट तिरुमलाई की पहाड़ी पर स्थित है। दोनों रानियों को राजा के दोनों ओर बनाया गया है। ताँबे की ढलाई का उत्तम उदाहरण है। इनकी पहचान इनके कंधों पर खुदे हुये इनके नामों से सरलतापूर्वक की जाती है। राजा की मूर्ति 1-2 मीटर ऊँचाई की है। रानियों को छोटा बनाया गया है।

दीप-दान परम्परा के अन्तर्गत दक्षिण भारतीय धातु मूर्तिकला के सर्वोत्तम उदाहरणों में दीपम् निर्माण कला का महत्व माना जाता है जिन्हें मन्दिरों में अथवा घरों में उत्सवों, त्योहारों के समय प्रयोग में लाया जाता है। ये दीपक किसी पेड़ की आकृति में, पशु-पक्षी की आकृति के रूप में निर्मित किये जाते हैं। ये दीपक अधिकतर मन्दिरों में दान के रूप में आते हैं। कभी-कभी उसी व्यक्ति की आकृति भी दीपक के रूप में निर्मित की जाती है जो व्यक्ति मन्दिर में इस दीपक का दान करता है। जब ये दीप स्त्री आकृति के रूप में बनाये जाते हैं तब वे दीप लक्ष्मी स्वरूप जाने जाते हैं। ये दीप लक्ष्मी दीपक चोल वंशीय कला के अन्तिम समय के कालों में प्रचलित रही। ये दीपक विभिन्न आकार और आकृतियों में बनाये जाते थे जो अधिकांशतः पीपल व ताँबे को ढालकर बनाये जाते थे। इनका वजन कई किलोग्राम था। दीपकों को निर्मित करने में कारीगरों ने अपनी कलात्मकता एवं कल्पना, प्रतीकात्मकता, परम्परागत शास्त्रीय नियमों, नवीनता एवं कुशल हस्त कौशल का प्रदर्शन किया है। यह बात और है कि दीपक मन्दिर में दान के लिये हो या घरों में प्रतिदिन दीप दान के लिये उसी आधार पर दीपक का वजन बनाया गया है। ये दीपक मन्दिर के धार्मिक कार्यों का अभिन्न अंग है। अधिकतर धार्मिक व्यक्तियों और भक्तों द्वारा मन्दिर के देवता को समर्पित किये जाते हैं। इन्हें देवा दानम् (देवता को भेंट) के नाम से जाना जाता है। वेदों में इन दीपम् के सम्बन्ध में हमें अनेक जानकारियाँ प्राप्त होती हैं। वेदों में बताया गया है कि इन दीपम् में इनके स्तम्भ भाग को बनाना सर्वथा आवश्यक है और जब इन्हें बिना स्तम्भ के बनाया जाता है तब इन्हें छत से चैन आदि की सहायता से लटकाया जाता है जो कलात्मकता से परिपूर्ण होते हैं। सर्वाधिक लोकप्रिय दीप-लक्ष्मी दीपम् होते हैं। इन्हें एक स्त्री आकृति के रूप में बनाया जाता है जिसके हाथ में तेल व बत्ती के लिए एक बर्तन बनाया जाता है। आज भी दक्षिण के मन्दिरों में इसके अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं। ये दीपम् सूर्य और अग्नि के प्रतीक माने जाते हैं जिन्हें बहुत शुभ माना जाता है। देवता की प्रार्थना के लिए दीप बहुत अधिक आवश्यक होते हैं। दीपक की ज्योति के प्रज्वलन से अंधकार दूर होता है। ये ज्योति ज्ञान का प्रतीक भी मानी जाती है जहाँ अंधकार रूपी भय का नाश होता है। इसी प्रकार दक्षिण भारतीय धातु कला बहुत की उत्कृष्ट श्रेणी की कला कही जा सकती है।

बैंजामिन रॉलैण्ड के कथनानुसार "भारतीय कांस्य मूर्तिकला अपने आदर्शों को प्रतीकात्मक रूप में प्रस्तुत करती है। विशेष रूप से मानवीय सौन्दर्य के दृष्टिकोण से देखें तो वहाँ रेखाओं को गणितीय शुद्धता और अधिकांशतः सरलीकृत आकारों के साथ देखा जा सकता है। मनुष्याकृतियों में यह गणितीय शुद्धता पूरी प्रवीणता के साथ नजर आती है। रेखीय डिजाइनों में भी यह प्रवीणता और शुद्धता की झलक मिलती है। शास्त्रगत नियमों के आधार पर ही इनका निर्माण करने का चलन इस समय रहा था। देवों की मुद्राएँ खड़े और बैठे होने की स्थिति, वाहन, अस्त्र-शस्त्र तथा प्रत्येक मूर्ति की आन्तरिक व बाहरी विशेषताओं के आधार पर बनाया गया है।"

अतएव ये दक्षिण भारतीय मूर्तियाँ भारतीय कला की आधारभूत विशेषताओं का दिग्दर्शन कराती हैं, जो उन्हें अन्य सभी से पृथक् करती हैं। यह शाश्वत है कि किसी भी कार्य की सृजनात्मकता और कथ्यात्मकता उस देश की संस्कृति, धार्मिक मान्यताओं, विश्वासों आदि से संलग्न रहती हैं तथापि विश्व स्तर की भी एक मान्यता होती है और यही मान्यता दक्षिण भारतीय कांस्य मूर्ति शिल्पों की कलात्मक सुन्दरता को उद्घाटित करती हैं।

दक्षिण भारतीय कांस्य मूर्तिकला में देवी-देवताओं की कुछ प्रमुख मुद्राएँ

(1) कल्याण सुन्दरम् मूर्ति - कल्याण सुन्दरम् मूर्ति में शिव-पार्वती का विवाह दृष्टव्य है। इसमें शिव-पार्वती के हाथ को अपने हाथ में ले रहे हैं। शिव और पार्वती को खड़ी मुद्रा में दर्शाया गया है। कुछ मूर्तियों में विष्णु को भी कन्यादान करते हुए दिखाया गया। यह मूर्ति कल्याण सुन्दरम् 10वीं शताब्दी की है। यह तंजावुर आर्ट संग्रहालय में सुरक्षित है।

(2) अर्द्धनारीश्वर मूर्ति - 11वीं शताब्दी की अर्द्धनारीश्वर स्वरूप की यह कांस्य प्रतिमा मद्रास के गवर्मेन्ट संग्रहालय में सुरक्षित है। इस मूर्ति में शिव को खड़ी मुद्रा में दर्शाया गया है जहाँ शिव को नारी व पुरुष दोनों रूपों में अंकित किया गया है। शिव शक्ति का यह अनूठा उत्कृष्ट संगम है। इसमें उनका आधा शरीर पुरुष व आधा शरीर नारी रूप में अंकित है। यह अधिकतर कांस्य मूर्तियों में दृष्टव्य है।

(3) शिव की त्रिपुरांटक मूर्ति - इस मूर्ति में शिव को असुरों से लड़ते हुए भयानक स्वरूप (मुद्रा) में अंकित किया जाता है। असुर देवाताओं के परम्परागत शत्रु हैं। उनके दोनों हाथों में धनुष-बाण दर्शाये गये हैं। यहाँ पर असुर को शिव के पैरों में नहीं दिखाया गया। धातु मूर्तियों में यह सम्पूर्ण दृश्य बहुत ही सरलीकृत रूप में बनाया जाता है। इस विषय पर आधारित दृश्य को प्रस्तर मूर्तियों में अधिक विवरण के साथ दर्शाया गया है। यह मूर्ति तंजावुर कला गैलरी में सुरक्षित है।

(4) उमा महेश्वर मूर्ति - 9वीं शताब्दी में बनी सुखासन प्रतिमा राजकीय संग्रहालय मद्रास में सुरक्षित है। इस सुखासन दृश्य में शिव-पार्वती को सुखासन पर बैठे हुए दर्शाया गया है। पार्वती को शिव के बायीं ओर दिखाया गया है। उनके पैर सीधे लटके हुए बनाये जाते हैं। यह शिव और उमा की प्रचलित मुद्रा है। इस मुद्रा की पति-पत्नी दोनों साथ में पूजा करते हैं। यह प्रस्तर मूर्तियों व धातु मूर्तियों में समान रूप से दृष्टव्य है।

(5) वीनाधर- दक्षिणा मूर्ति यह मूर्ति 13वीं शताब्दी चोल काल में बनी प्रतिमा है। यह राजकीय संग्रहालय मद्रास में सुरक्षित है। वीनाधर - दक्षिणा मूर्ति में शिव को एक महान संगीतकार के रूप में दर्शाया गया है। जहाँ वे अपने हाथों में वीणा को धारण किए हुए हैं। इस प्रकार के मूर्ति शिल्पों में बैठी हुई मुद्रा में दिखाया जाता है तो उनके दाहिने हाथ में वीणा दिखाई गई है। यदि खड़ी मुद्रा में मूर्ति बनाई गई है तो उनके सामने के दोनों हाथों में वीणा दिखाई गई। पीछे वाले दोनों हाथों में उनके परम्परागत आयुध (हथियार) दर्शाये गये हैं।

(6) शिव की विषप्रहन मूर्ति - यह मूर्ति कांस्य धातु पर आधारित है। मूर्ति शिल्पों में 'शिव द्वारा विषपान करते हुए अंकित किया जाता है। हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार जब देवताओं व असुरों ने मिलकर समुद्र मंथन किया था तब उसमें से विष भी निकला उस विष को शिव जी ने इस संसार की रक्षा हेतु इसी का विषपान किया था।

(7) कालिया मर्दक - कृष्ण कालिया मर्दक कृष्ण की प्रतिमा 10वीं शताब्दी में प्रारम्भिक चोल वंश के शासनकाल की है। यह राजकीय संग्रहालय मद्रास में सुरक्षित है। इस मूर्ति में कृष्ण को कालिया सर्प का मान मर्दन करते हुए दिखाया जाता है। अधिकतर मूर्ति शिल्पों में कृष्ण को बालरूप में सर्प के फन पर और कहीं-कहीं उसके शरीर पर नृत्य की मुद्रा में दिखाया जाता है। कृष्ण को बायें हाथ से सर्प की पूँछ पकड़े हुए और बायें पैर को सर्प के ऊपर रखे हुए व दायें पैर को ऊपर उठा हवा में लहराते हुए नृत्य मुद्रा में दिखाया जाता है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. प्रश्न- दक्षिण भारतीय कांस्य मूर्तिकला के विषय में आप क्या जानते हैं?
  2. प्रश्न- कांस्य कला (Bronze Art) के विषय में आप क्या जानते हैं? बताइये।
  3. प्रश्न- कांस्य मूर्तिकला के विषय में बताइये। इसका उपयोग मूर्तियों एवं अन्य पात्रों में किस प्रकार किया गया है?
  4. प्रश्न- कांस्य की भौगोलिक विभाजन के आधार पर क्या विशेषतायें हैं?
  5. प्रश्न- पूर्व मौर्यकालीन कला अवशेष के विषय में आप क्या जानते हैं?
  6. प्रश्न- भारतीय मूर्तिशिल्प की पूर्व पीठिका बताइये?
  7. प्रश्न- शुंग काल के विषय में बताइये।
  8. प्रश्न- शुंग-सातवाहन काल क्यों प्रसिद्ध है? इसके अन्तर्गत साँची का स्तूप के विषय में आप क्या जानते हैं?
  9. प्रश्न- शुंगकालीन मूर्तिकला का प्रमुख केन्द्र भरहुत के विषय में आप क्या जानते हैं?
  10. प्रश्न- अमरावती स्तूप के विषय में आप क्या जानते हैं? उल्लेख कीजिए।
  11. प्रश्न- इक्ष्वाकु युगीन कला के अन्तर्गत नागार्जुन कोंडा का स्तूप के विषय में बताइए।
  12. प्रश्न- कुषाण काल में कलागत शैली पर प्रकाश डालिये।
  13. प्रश्न- कुषाण मूर्तिकला का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
  14. प्रश्न- कुषाण कालीन सूर्य प्रतिमा पर प्रकाश डालिये।
  15. प्रश्न- गान्धार शैली के विषय में आप क्या जानते हैं?
  16. प्रश्न- मथुरा शैली या स्थापत्य कला किसे कहते हैं?
  17. प्रश्न- गांधार कला के विभिन्न पक्षों की विवेचना कीजिए।
  18. प्रश्न- मथुरा कला शैली पर प्रकाश डालिए।
  19. प्रश्न- गांधार कला एवं मथुरा कला शैली की विभिन्नताओं पर एक विस्तृत लेख लिखिये।
  20. प्रश्न- मथुरा कला शैली की विषय वस्तु पर टिप्पणी लिखिये।
  21. प्रश्न- मथुरा कला शैली की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  22. प्रश्न- मथुरा कला शैली में निर्मित शिव मूर्तियों पर टिप्पणी लिखिए।
  23. प्रश्न- गांधार कला पर टिप्पणी लिखिए।
  24. प्रश्न- गांधार कला शैली के मुख्य लक्षण बताइये।
  25. प्रश्न- गांधार कला शैली के वर्ण विषय पर टिप्पणी लिखिए।
  26. प्रश्न- गुप्त काल का परिचय दीजिए।
  27. प्रश्न- "गुप्तकालीन कला को भारत का स्वर्ण युग कहा गया है।" इस कथन की पुष्टि कीजिए।
  28. प्रश्न- अजन्ता की खोज कब और किस प्रकार हुई? इसकी प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख करिये।
  29. प्रश्न- भारतीय कला में मुद्राओं का क्या महत्व है?
  30. प्रश्न- भारतीय कला में चित्रित बुद्ध का रूप एवं बौद्ध मत के विषय में अपने विचार दीजिए।
  31. प्रश्न- मध्यकालीन, सी. 600 विषय पर प्रकाश डालिए।
  32. प्रश्न- यक्ष और यक्षणी प्रतिमाओं के विषय में आप क्या जानते हैं? बताइये।

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book